संगत के लिए उपदेश
(सत्संगी का सहारा पेज न. 27, वचन पूज्य मैनेजर साहि जी) गुरु एक ही है जो सतपुरुष या उसका शब्द है व देह धारकर जीवों को चिताता है, उसी दिन से अपने शिष्यों के अंदर बैठकर उनकी संभाल करने लगता है। जितना समय देही में रहता है वह हर प्रकार से बाहरी सहायता भी देता रहता है और अंदरूनी भी। जब वे स्थूल चोला बदल जाते हैं तो उनकी संसारी जिम्मेवारियाँ उनका जानशीन (उत्तराधिकारी) पूरी करता है जिसको वह नियुक्त करते हैं। हमें उनसे उतना ही प्यार करना चाहिए जितना कि अपने गुरु से और उनके वचनों पर फूल चढ़ाते रहना चाहिए। गुरु कभी मरता नहीं वह अपने शिष्यों के सदा अंग-संग रहता है। केवल बाहरी रहनुमाई नहीं करता क्योंकि उन्होंने स्थूल देह त्याग दी होती है और अपने सत्संगीयों के साथ सदा सुक्ष्म एवं कारण स्वरूप में रहता है और हर मंजिल पर अपने सत्संगियों की रहनुमाई करता रहता है।
वचन पूज्य मैनेजर साहिब जी (डोली हुई दुनिया का सहारा भाग-3 पेज न.91)
संतों के चोला छोड़ जाने के बाद स्वार्थी माया या मान बड़ाई के पुजारी और दुनियां के गुलाम अपने बाहरमुखी इल्म और रसूख से या तो स्वयं गद्दी के मालिक बनना चाहते हैं या मतलब पूरा करने के लिए अपने चुनिंदा व्यक्ति को गद्दीनशीन बनाना चाहते हैं ताकि गुरु के नाम पर आने वाले धन को अपने भोग विलास में खर्च कर सकें और उससे लाभ उठा सकें। वे उसकी सफलता के लिए दलाल बनकर पूरी मदद करते रहते हैं इस प्रकार संतों के चोला छोड़ने के बाद कई-कई गद्दियाँ बन जाती हैं (जिस तरह श्री गुरु हर किशन साहब के चोला छोड़ने के बाद 22 गद्दियाँ बन गई)। सच्चे फकीरों को धक्के पड़ने लगते हैं। परंतु सच्चे फकीर नम्रता और दीनता से भरपूर होते हैं। वे किसी झगड़ें में पड़ना नहीं चाहते और अपनी दीनता के गुण के कारण चुप रहते हुए अपने आपको व्यक्त नहीं करते। पाखंडी लोग गलत प्रचार करके लोगों को उनके खिलाफ भड़काते रहते हैं सच्चे फकीरों पर कई तरह के आरोप लगाकर उनकों बदनाम करते रहते हैं और अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।
पूज्य शाह मस्ताना जी का खास बचन (जीवन और उपदेश भाग-2 (पेज न0 395)
पूज्य परम सन्त शाह मस्ताना जी जब 16, अप्रैल 1960 को दिल्ली जाने लगे तो उससे दो दिन पहले पूज्य मैनेजर साहिब जी को फरमाया कि इन साधुओं की बजाए अगर दो मजदूर रख लेगा तो बहुत अच्छा रहेगा और फरमाया कि प्रकाश साधु नया है, यह तुम्हारे पास रहे तो रहे (मगर वह भी नहीं रहा) और चलते समय जीप में बैठकर फरमाया कि दिल करता है कि इन साधुओं का मुँह न देखें।
यह कोई नई बात नहीं। सब सन्तों के मौके पर साधुओं का ऐसा ही बर्ताव रहा है। फकीर दीनता से उनसे काम लेते रहते हैं। मन काल का एजेंट किसी को उनका हुक्म मानने नहीं देता और सेवा व भजन-सिमरन नहीं करने देता। श्री गुरु नानक साहिब के समय मरदाना भागता ही रहा। आखिर कौडे राक्षस के हाथ चढ़ा। फिर श्री गुरु नानक साहिब ने तेल के गर्म कड़ाहे को ठण्डा करके उसे बचाया।
श्री गुरु गोबिन्द सिंह साहिब के समय उनके लांगरी गंगू ने ही माया के वश होकर गुरु साहिब के लड़कों को दीवारों में चिनवाया। मगर गुरु साहिब उसकी (गंगू की) संभाल करते रहे। सन्तों के चोला छोड़ने के बाद उनके खानदान के सदस्यों और साथ रहने वाले साधुओं ने ही माया के वश होकर उनके वचनों की हुक्म उर्दूली की है।
“डोली हुई दुनिया का सहारा” भाग-3 (पेज न0 91) में पूज्य
मैनेजर साहिब जी ने साफ फरमाया है कि “सच्चे फकीरों की सही शिक्षा उनके सेवकों बल्कि आगुओं द्वारा ही खराब हुई। अक्सर फकीरों के साथ रहने वाले उनके आगुओं और उनके खानदान के लोगों द्वारा ही सच्चे फकीरों को धक्के पड़े हैं और उनकी सही शिक्षा खराब हुई है। श्री गुरु नानक साहिब के साहिबजादे ही श्री गुरु अंगद साहिब
का विरोध करते रहे और उन्होनें अपने अलग-अलग पंथ चला लिए। गुरु अंगद साहिब के लड़के दासू ने गद्दी पर बैठे हुए श्री गुरु अमरदास को लात मारी कि वह क्यों उसके पिता की गद्दी पर विराजमान है। मौलाना रूम के लड़के अलाउदीन महमूद ने उनके मुर्शिद कामिल हजरत शम्सतबरेज को बड़ी बेरहमी से मारा था।
पूज्य परम संत मैनेजर साहिब जी ने 2.12.1995 के सत्संग में स्पष्ट रूप से फरमाया कि देख लो ! हर फकीर के मौके पर ऐसा हुआ है, साथ रहने वालों ने कद्र नहीं की। एक दूसरे की मानेंगे, फकीरों की कोई नहीं मानता। याद रखो !
दुनियां, जिस साधु से ताल्लुक पड़ गया, उसके पीछे लग जाती है बस; ! अब दोनों का बेड़ा गर्क, याद रखो ! बाद में कई – कई गद्दियाँ इसलिए बनी हैं, और नहीं। फकीर आते हैं, चले जाते हैं। बाद में किसी को, जो लायक समझते हैं उसको समझा देते हैं, बस ! बाद में फिर झगड़े, देखो ! देख लो ! पीछे। गुरू नानक साहिब के लड़के ही ना मानें, गुरू अंगद साहिब के हुक्म में रहते। गुरू अंगद साहिब के लड़कों ने लातें मारी। बोलो भई !
देख लो ! वो दीनता वाले होते हैं, नीचे गिरा दिया गुरू अमरदास को। फिर भी उन्होनें उनकी टांगें दबाई कि इनके हड्डी ना चुभी हो, बोलो भई ! देख लो भई ! उन्होनें संगत को कहा की, बैठो, हम जाते हैं। गुरू अर्जुन साहिब के मौके पर पृथ्वीचन्द मुखालफत ही करता रहा। गुरू तेग बहादुर को मत्था भी टेकने नहीं जाने दिया था। याद रखो ! ऐसा होता है, यहाँ भी होगा, ऐसे ही। देख लो ! अभी हैं, हो रहे हैं कई। याद रखो की किसी का कहा ना मानो, सिमरन करो अपना, यह है। यहां गद्दी बनती है। यहां एक ही लायक है “वकील”। याद रखो ! किसी के पीछे ना लगना। कई फिरते हैं ऐसे इधर-उधर बकते। कोई कुछ बकता है, कोई कुछ बकता है। एक दूसरे की निंदा-चुगली रह गई, और क्या है ? रो-रो कर गए हैं फकीर। मन करने नहीं देता। मन और माया घेरते हैं।
किताब पढ़ाकर आगे कहा :- “किसी की न मानना, जिसको हक्म होता है, वह चीज है।”